Gyan Ganga: सभी वानरों में माता सीता जी को खोजने की धुन सवार थी

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भगवान श्रीराम जी ने अपना संदेशवाहक चुन लिआ था। स्वाभाविक है कि श्रीराम जी ने जिन्हें मुद्रिका दी, वही श्रीहनुमान जी ही उनके मुख्य संदेश वाहक हैं। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि माता सीता जी के पास जब, जाना ही श्रीहनुमान जी को था, तो सीता मईया की खोज हेतु मात्र श्रीहनुमान जी को ही जाना चाहिए था न? जबकि यहाँ तो हम देख रहे हैं, कि सीता मईया की खोज में तो सभी वानर ही समस्त दिशायों में कूच करते हैं। यहां एक प्रश्न आप के मन में कूद फांद नहीं मचा रहा, कि भई जब पहले से ही निर्धारित है, कि श्रीसीता जी के पास श्रीहनुमानजी को ही जाना है, तो क्यों सभी वानरों को इस कठिन यात्रा पे धकेल दिया गया। कठिन यात्र इसलिए कि वनों में भूखे प्यासे यहाँ से वहाँ, और नदी, नालों व कंद्ररायों से होकर गुजरना था। और पग-पग पर खतरों की आशंकायों ने डेरे जमा रखे थे। ऐसे में श्रीहनुमान जी के परिश्रम को छोड़ दीजिए, तो बाकी समस्त वानरों व भालूयों का परिश्रम तो व्यर्थ ही जान पड़ता है। कम से कम बाकी वानरों को तो श्रीसीता जी की खोज यात्र के कड़वे अनुभवों से बचाया जा सकता था। उनकी ऊर्जा, सामर्थ्य व परिश्रम का सदुोपयोग किया जा सकता था। उनसे किसी दूसरे संदर्भ में काम लिया जा सकता था। ‘मैनेजमेंट फंड़ा’ तो देखिए निश्चित ही यही सिद्धांत को उचित मानता है। प्रथम द्रष्टि कोण भी इसी बात का समर्थन करता है। इसका तात्पर्य श्रीराम जी को मैनेजमेंट में अभी दक्षता नहीं आई है क्या? क्या प्रभु भी संसार के ज्ञान में अभी कच्चे हैं। क्या प्रभु भी किसी विद्या में अपरिपक्कव हो सकते हैं? यह तो मानने योग्य ही नहीं है। तो फिर प्रभु ने क्यों समस्त वानरों को ही वन यात्र में प्रस्थान हेतु आदेश दिया। क्यों मात्र श्रीहनुमान जी को ही इस यात्र पर नहीं भेजा गया? सज्जनों प्रभु की इस लीला को समझने के लिए आपको तनिक गहराई से चिंतन करना पड़ेगा। 

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आध्यात्मिक सिद्धांत कहता है कि प्रभु से बिछुड़ कर प्रत्येक जीव चौरासी के चक्र में फँसा हुआ है। और बिना प्रभु की सेवा व साधना के, इस कूचक्र से निकलना असंभव है। बिना प्रभु की भक्ति के चौरासी लाख योनियों का दुख झेलना पड़ता है। लेकिन जैसे कैसे भी, किसी भी बहाने से, अगर हमारे हाथों, प्रभु की सेवा भक्ति हो जाये, तो निश्चित ही हमें चौरासी के बंधन में बंधना नहीं पड़ता। क्या सभी वानरों में इतने प्रबल संसकार थे, कि वे पहले ही प्रयास में श्रीसीता जी से भेंट में सफल हो पाते। श्रीराम जी तो वानरों की यह दुर्बलता जानते ही थे। लेकिन अपनी दुर्बलता को आधार बनाकर तो सभी वानर हाथ पे हाथ रख कर बैठे ही रहते, और इस निष्क्रियता के चलते तो उनमें सामर्थ व बल ही समाप्त हो जाता। इसलिए पहला कारण तो यह कि वे सब वानर निष्क्रिय न हों। दूसरा सबसे भावनात्मक पहलु यह, कि प्रभु सेवा क निमित्त, अगर हम अपने लक्ष्य के प्रति भले सिर्फ भटके भी हों न, लक्ष्य न भी मिला हो। तब भी, प्रभु के प्रति इस भटकना का इतना मूल्य है, कि इससे जीव का चौरासी लाख योनियों का भटकना समाप्त हो जाता है। और प्रभु के अवतार का यही एक मुख्य उद्देश्य होता है। जो वानर माता सीता जी की खोज में उतरे हैं, उनका उत्साह व लगन देखते ही बनता है। गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं-

‘चले सकल बन खोजत सरिता सर गिरि खोह।

राम काज लयलीन मन बिसरा तन कर छोह।।’ 

सभी वानरों में माता सीता जी को खोजने की इतनी धुन चढ़ी है कि वे सभी वन, नदी, तालाब व पर्वतों की कन्दराओं में खोजते फिर रहे हैं। वे इतने मग्न हैं कि उन्हें अपने शरीर तक का भान भूल गया है। श्रीराम जी को यह भी तो देखना था कि मेरे कार्य प्रति क्या सभी वानरों के मन में इतनी ही उत्कंठा व लग्न है, जितनी कि श्रीहनुमान जी के अंतःकरण में है। श्रीराम जी के मन में यह देख प्रसन्नता हुई कि सभी वानर, अपने लक्ष्या के प्रति, अर्थात मेरे कार्य के प्रति सौ प्रतिशत समर्पित हैं। जैसा कि अपने विगत अंकों में एक स्थान पर यह उल्लेख भी किया था, कि श्रीसीता जी वास्तव में क्या हैं? श्रीसीता जी साक्षात शांति हैं। और शांति की खोज तो, छोटे से बड़े समस्त जीवों को है। और शांति यूं ही हाथ पर हाथ धर कर बैठे बिठाये तो मिल नहीं जाती। उसके लिए तो प्रयास करना ही होता है। और प्रयास अगर इन वानरों जैसा हो, तो निश्चित है, कि जीव अपने लक्ष्य तक पहुंचता ही पहुंचता है। वानर ऐसा नहीं सोचते कि माता सीता जी केवल किसी कन्दरा में ही होगी। वे अपनी और से कोई ढील नहीं छोडना चाहते। कंदरा में न सही, तो हम मईया को तालाब में ढूंढेगे। तालाब न सही तो उन्हें नदी में ढूंढेगे। कोई उनसे पूछ ले कि भई! माता सीता नदी में भला क्या करेंगी? तालाब भी भला कोई छुपने का स्थान है? लेकिन वानरों की धुन के क्या कहने। वे माता सीता के होने की सम्भावना को किसी स्थान पर भी नकार नहीं रहे थे। इस यात्र के दौरान उनका व्यवहार भी बड़ उच्च कोटि का था। वानरों को अगर कोई राक्षस मिल जाता तो वे उसे थप्पड़ मार-मार कर ही मार डालते। और अगर कोई ऋर्षि से भेंट हो जाती, तो सभी वानर उन ऋर्षि को घेर कर खड़े हो जाते-

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‘कतहुँ होइ निसिचर सैं भेटा।

प्रान लेहिं एक एक चपेटा।

बहु प्रकार गिरि कानन हेरहिं।

कोउ मुनि मिलइ ताहि सब घेरहिं।।’

ऋर्षि को माता सीता जी की प्राप्ति हेतु अनेकों प्रश्न पूछने लगते। और अनकों यात्र मार्ग के अनेकों समाधान लेकर आगे बढ़ जाते। वानरों का यह व्यवहार निश्चित ही हमारे भक्ति मार्ग पर हमें यह समझाना चाह रहा है, कि आपके भक्ति पथ पर अगर राक्षस रूपी अवगुण मिलें, तो उन्हें अविलम्भ ही मार देना चाहिए। और अगर कहीं किसी संत अथवा ऋर्षि से भेंट हो, तो उन्हें सादर अपने भक्ति पथ की समस्याओं से अवगत कराना चाहिए। अभी तो यात्र मानों आरम्भ हुई है। आगे वानरों को कितना सफलता मिलती है, और कितनी असफलता, यह चर्चा हम आगे के अंकों में करेंगे—जय श्रीराम…(क्रमशः)…जय श्रीराम…!

– सुखी भारती

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